उत्तर प्रदेश में 2007 से 2012 के बीच का दौर मायावती और उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के लिए सियासत और प्रशासन दोनों नजरिए से अहम था। लेकिन क्या इस दौरान राज्य में दंगों में वाकई कोई बड़ा बदलाव आया? FactChecker.in द्वारा हाल ही में किए गए विश्लेषण से कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के मुताबिक, मायावती के पांच साल के कार्यकाल के दौरान यूपी में कुल 22,347 दंगे दर्ज किए गए। ये आंकड़ा उस समय के बयानों से मेल नहीं खाता जब अक्सर यह दावा किया गया कि राज्य में कानून व्यवस्था बेहतर हुई है और दंगे लगभग थम गए हैं। जबकि हकीकत यह है कि साल 2011 में दंगों की घटनाओं में अचानक 19.7% की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है।
NCRB दंगों को अलग-अलग 15 प्रकारों में बांटता है। इनमें साम्प्रदायिक, जातीय, गांव-सम्बंधित, राजनीतिक व अन्य सामाजिक कारणों से दंगे शामिल हैं। मायावती के शुरुआती कार्यकाल में इन घटनाओं की संख्या थोड़ी घटी थी, लेकिन बाद में इनमें बढ़ोतरी भी साफ दिखी। दंगों की प्रकृति सिर्फ साम्प्रदायिक नहीं थी, बल्कि जातीय, खेत-खलिहान की लड़ाई, या राजनीतिक टकराव भी इनमें शामिल रहे।
मायावती की सरकार दलित हितैषी फैसलों और बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं के लिए चर्चा में रही। लखनऊ समेत कई शहरों में अम्बेडकर पार्क, दलित प्रतीकों और स्मारकों का निर्माण हुआ। दलित बस्तियों के लिए अलग सड़कें बनवाने जैसी योजनाएं भी शुरू की गईं, ताकि उनकी पहुंच आसान हो सके। इन सबका मकसद साफ था – दलितों को मुख्यधारा से जोड़ना और सामाजिक भेदभाव को कम करना।
पर आंकड़े इशारा करते हैं कि ले-देकर इन विकास परियोजनाओं और कानून-व्यवस्था के दावों के बावजूद दंगों पर पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका। आंकड़ों से यह भी साफ़ है कि रिकॉर्डिंग और रिपोर्टिंग में भी कई बार सरकारी दावों के विपरीत वस्तुस्थिति सामने आई है। अपराध के आंकड़ों में पारदर्शिता और सच दिखाने की जरूरत है, क्योंकि आंकड़े ही असल हालात की तस्वीर दिखाते हैं।
सत्ता में रहते हुए किसी भी सरकार के सामने सामाजिक, जातीय और धार्मिक चुनौती बड़ी होती है। यूपी जैसे बड़े राज्य में ऐसी टकराहटों को रोकना, सिर्फ योजनाएं बनाने या पार्क बनने से नहीं होगा। असली फर्क, जमीनी स्तर की समझदारी और पारदर्शी नीतियों से आता है।
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