जी.एन. साईबाबा का जीवन हमारे समय के गंभीर सामाजिक न्याय के मुद्दों को दर्शाता है। एक समय के सशक्त और प्रभावशाली अधिकारिता आवाज के रूप में, उन्होंने अपनी सशक्त और प्रतिबद्ध विचारधारा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर थे, जिन्होंने अनेक छात्र-छात्राओं को उनके मानवाधिकार और सामाजिक जागरूकता के लिए प्रेरित किया। 2014 में उन पर लगाए गए माओवादी समूहों से संबंध के आरोप ने उनका जीवन बदल डाला। उन्हें गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, यानी UAPA के तहत गिरफ्तार किया गया था।
यह गिरफ्तारी भारतीय न्याय प्रणाली में एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, क्योंकि इसके आधार पर उन पर जो आरोप लगाए गए थे, वह बाद में निराधार साबित हुए। उनका सपना था कि उनकी अखंडता और सामाजिक न्याय के लिए उनका संघर्ष कोर्ट में मान्यता पाए, लेकिन जब 2024 में बंबई हाईकोर्ट ने उन्हें निर्दोष घोषित किया, तो स्वास्थ्य की बिगड़ती स्थिति ने उनके जीवन को खतरनाक मोड़ पर ला दिया।
साईबाबा 90% विकलांगता के साथ जीवन जीते थे। पोलियो के चलते उनकी शारीरिक स्थिति पहले से ही कई कठिनाइयों से भरी हुई थी। इसके बावजूद, उन्हें जेल में उचित चिकित्सा देखभाल से वंचित रखा गया। उनकी सेहत तेजी से बिगड़ती चली गई, जिसमें उन्होंने दो बार कोविड-19 और एक बार स्वाइन फ्लू का सामना किया। उनका स्वास्थ्य अति गंभीर हो गया, जो अंततः उनके जीवन के अंत का कारण बना।
यह केवल उनकी व्यक्तिगत मानव त्रासदी नहीं है, बल्कि भारतीय जेल प्रणाली के तहत मानवाधिकारों की स्पष्ट अनदेखी भी है। इस मामले ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का ध्यान भी आकर्षित किया, लेकिन कोई प्रभावी कार्रवाही नहीं की गई। संघर्ष के इस सफर में उन्हें कई मानवीय आधारभूत अधिकारों से वंचित रखा गया, जैसे कि उनके मूमेंट के लिए आवश्यक व्हीलचेयर की उपलब्धता।
जी.एन. साईबाबा को अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपनी माँ के निधन की खबर मिली, लेकिन यहाँ तक कि उन्हें अपनी माँ के अंतिम संस्कार में भी भाग लेने का अवसर नहीं दिया गया। इस पीड़ा ने उनके संघर्ष को और अधिक दुखद बना दिया। इसने स्पष्ट कर दिया कि उन पर अत्यधिक बर्बरता से न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक आघात भी पहुँचाया गया। उनकी माँ का निधन इस प्रणाली में समाज के सबसे कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए एक ज्वलंत सवाल बनता है।
उनकी माँ की इस दिल दहला देने वाली स्थिति ने समाज के बचे हुए विवेक और न्याय की पुकार को और जोरदार बना दिया। माँ-बेटे की इस जोड़ी ने इस वर्षा में जीने की कोशिश की, जो भारतीय न्याय प्रणाली में छिपे संक्रमण को दिखाती है।
जी.एन. साईबाबा का मामला UAPA, या गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम के दुरुपयोग का एक प्रतीक बन गया है। यह कानून न केवल किसी समुदाय को चुप कराने के लिए बल्कि उनकी स्वतंत्रता और आम जनजीवन को प्रतिबंधित करने के लिए भी उपयोग में लाया जा रहा है। इस कानून का अमानवीय रूप जिससे कि साईबाबा जैसे लोग बहुत संघर्ष और कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, ने कई मानवाधिकार संगठनों को आलोचना के प्रेरित किया है।
UAPA के तहत साईबाबा की गिरफ्तारी के बाद, अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता और संगठन सरकार के खिलाफ एकजुट हो गए। विभिन्न संगठनों ने इस कानून में सुधार की मांग की है, जिससे कि बिना पर्याप्त सबूत के किसी को भी गैर-कानूनी रूप से हिरासत में नहीं रखा जा सके। साईबाबा की घोर पीड़ा से उत्पन्न हुआ यह आंदोलन राजनीतिक कैदियों की आवाज को दुनिया के सामने लाया।
जी.एन. साईबाबा का जीवन बिना किसी अपराध के परिपूर्ण नहीं था, बल्कि यह उन लोगों के लिए आवाज बनने का मंच था जो न्याय और समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके निधन के बाद उनके समर्थन में समिति, "समिति फॉर डिफेंस एंड रिलीज ऑफ जी.एन. साईबाबा", ने उनके विरुद्ध हुआ अन्यायपूर्ण बर्ताव को उजागर किया और इसके विरुद्ध आवाज उठाई। इस समूह ने उनके वर्षों से झेले गए संरक्षण और न्याय की वापसी के लिए अपील की।
उनकी लड़ाई दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों नंदिता नारायण और करेन गेब्रियल द्वारा समर्थित थी, जिन्होंने साईबाबा के सेवा वर्ष और नुकसान के लिए मुआवजे की मांग की, साथ ही उनके काम पर पुनः बहाल करने की भी। इन कार्यकर्ताओं ने यह सुनिश्चित किया कि उनके आदर्श जीवित रहते और समाज में समानता और न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाते।
हनी बाबू, जो साईबाबा के लिए एक मजबूत समर्थक थे, बाद में खुद भी उनकी ही तरह आरोपित किए गए। बाबू की गिरफ्तारी ने साईबाबा के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र की विफलता को भी जाहिर किया। यह एक चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है कि सच्चाई और न्याय की लड़ाई, हालांकि कठिन, जरूरी है।
उन्होंने साईबाबा की रिहाई के लिए एक अविश्वसनीय साहस दिखाया। बाबू की गिरफ्तारी ने यह बताया कि भारत में व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकारिता के लिए लड़ना कितना मुश्किल हो गया है। यह न्याय के लिए एक संघर्ष है जो निरंतरता की मांग करता है।
जी.एन. साईबाबा का जीवन और उनकी मृत्यु ने भारतीय न्याय प्रणाली और मानवाधिकारों के मुद्दों पर एक गंभीर द्रष्टि प्रस्तुत की है। उनका संघर्ष यह दर्शाता है कि भारतीय समाज अभी भी उन आदर्शों को प्राप्त करने से कितना दूर हैं जिन्हें संविधान में लिखा गया है। यह भारतीय न्याय प्रणाली के लिए एक जागरूकता की घड़ी है। यह देखना महत्वपूर्ण है कि यह प्रणाली कैसे सुधार करती है और मानवाधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करती है।
आज साईबाबा के योगदान और उनके संघर्ष को याद करना यह सुनिश्चित करता है कि उनके जैसे लोगों की आवाज़ें हमेशा सुनी जाएँ। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उन्हें न्याय दिलाने के संघर्ष को कैसे आगे बढ़ाते हैं, जो कई बार गलत तरीके से बदनाम किए गए थे। उनके योगदान का यह सम्मान करना हम पर है, और यह सुनिश्चित करना कि मानवाधिकार के लिए उनकी सुभाषित आवाज़ कभी खामोश न हो।
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